Saturday, 27 January 2018

A little History of Belatal Mahoba

वीर काव्य के अन्तर्गत रासो ग्रन्थों का प्रमुख स्थान है। आकार की बात इतनी नहीं है जितनी वर्णन की विशदता की है। छोटे से छोटे आकार से लेकर कई कई ""समयों'' अध्यायों में समाप्त होने वाले रासो ग्रन्थ हिन्दी साहित्य में वर्तमान हैं। सबसे भारी भरकम रासो ग्रन्थ, सिने अधिकांश कवियों को रासो लिखने के लिये प्रेरित किया, चन्द वरदाई कृत पृथ्वीराज रासो है। इससे बहुत छोटे पा#्रयः तीन सौ चार छन्दों में समाप्त होने वाले रासो नामधारी वीर काव्य भी हैं, जो किन्हीं सर्गो या अध्यायों में भी नहीं बांटे गये हैं- ये केवल एक क्रमबद्ध विवरण के रुप में ही लिखे गये हैं।
रासों ग्रन्थों की परम्परा में ही ""कटक'' लिखे जाने की शैली ने जन्म पाया। कटक नामधारी तीन महत्वपूर्ण काव्य हमारी शोध् में प्रापत हुये हें। बहुत सम्भव है कि इस ढंग के और भी कुछ कटक लिखे गये हों, परन्तु वे काल के प्रभाव से बच नहीं सके। कटक नाम के ये काव्य नायक या नायिका के चरित का विशद वर्णन नहीं करते, प्रत्युत किसी एक उल्लेखनीय संग्राम का विवरण प्रस्तुत करते हुए नायक के वीरत्व का बखान करते हैं।
ऐतिहासिक कालक्रम के अनुसार सर्वप्रथम हम श्री द्विज किशोर विरचित ""पारीछत को कटक'' की चर्चा करना चाहेंगे। ये पारीछत महाराज बुन्देल केशरी छत्रसाल के वंश में हुए, जैतपुर के महाराजा के रुप में इन्होंने सन् १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम से बहुत पहले विदेशी शासकों से लोहा लेते हुये सराहनीय राष्ट्भक्ति का परिचय दिया। ""पारीछत को कटक"" आकार में बहुत छोटा है। यह ""बेलाताल को साकौ'' के नाम से भी प्रसिद्ध है। स्पष्ट है कि इस काव्य में बेला ताल की लड़ाई का वर्णन है। जैतपुर के महाराज पारीछत के व्यक्तित्व और उनके द्वारा प्रदर्शित वीरता के विषय में निम्नलिखित विवरण पठनीय है-
महाराज छत्रसाल के पुत्र जगतराज जैतपुर की गद्दी पर आसीन हुए थे। जगतराज के मंझले पुत्र पहाड़सिंह की चौथी पीढ़ी के केशरी सिंह के पुत्र महाराज पारीछत जैतपुर को गद्दी के अधिकारी हुए। इन्हीं महाराज पारीछत ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सत्ता के विरुद्ध सन् १८५७ से बहुत पहले विन्ध्यप्रदेश में प्रथम बार स्वाधीनता का बिगुल बजाया। महाराज पारीछत की धमनियों में बुन्देल केसरी महाराज छत्रसाल का रक्त वे#्र से प्रवाहित हो उठा, और वे यह सहन न कर सके कि उनके यशस्वी पूर्वज ने अपनी वृद्धावस्था में पेशवा को जो जागीर प्रदान की थी, उसे व्यापारियों की एक टोली उनके मराठा भाइयों से छीनकर बुन्छेलखण्ड पर अपना अधिकार जमावे। महाराज पारीछत ने कई बार और कई वर्ष तक अंग्रेंजों की कम्पनी सरकार को काफी परेशान किया, और उन्होंने झल्लाकर उन्हें लुटेरे की संज्ञा दे डाली।
जान सोर, एजेन्ट ने मध्यप्रदेश में विजयराघव गढ़ राज्य के तत्कालीन नरेश ठाकुर प्रागदास को २० जनवरी, सन् १८३७ ई. को उर्दू में जो पत्र लिखा, उससे विदित होता हे कि महाराज पारीछत १८५७ की क्रान्ति से कम से कम २० वर्ष पूर्व विद्रोह का झण्डा ऊंचा उठा चुके थे। उक्त पत्र के अनुसार ठाकुर प्रागदास ने पारीछत को परास्त करते हुए उन्हें अंग्रेज अधिकारियों को सौंपा, जिसके पुरस्कार स्वरुप उन्हें अंग्रेजों ने तोप और पाँच सौा पथरकला के अतिरिक्त पान के लिए बिल्हारी जागीर और जैतपुर का इलाका प्रदान किया।
ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि महाराज पारीछत चुप नहीं बैठै। उन्होंने फिर भी सिर उठाया, और इस बार कुछ और भी हैरान किया। उर्दू में एक इश्तहार कचहरी एजेन्सी मुल्क बुन्देलखण्ड, मुकाम जबलपुर खाम तारीख २७ जनवरी सन् १८५७ ई. पाया जाता है, जिसमें पारीछत, साविक राजा जैतपुर और उनके हमाराही पहलवान सिंह के भी नाम है।
उर्दू में ही एक रुपकार कचहरी अर्जेन्टी मुल्के बुन्देलखण्ड इजलास कर्नल विलियम हैनरी स्लीमान साहब अर्जेन्ट नवाब गवर्नर जनरल बहादुर बाके २४ दिसम्बर, सन् १८५७ के अनुसार- ""अरसा करीब २ साल तक कम व वैस पारीछत खारिजुल रियासत जैतपुर किया गया। सर व फशाद मचाये रहा और रियाया कम्पनी अंग्रेज बहादुर को पताया किया और बाजजूद ताकीदाद मुकर्रर सिकर्रर निस्वत सब रईसों के कुछ उसका तदारुक किसी रईस ने न किया हालांकि बिल तहकीक मालूम हुआ कि उसने रियासत ओरछा में आकर पनाह पाई''। इस रुपकार के अनुसार पारीछत के भाईयां में से कुंवर मजबूत सिंह और कुंवर जालिम सिंह की योजना से राजा पारीछत स्वयं अपने साथी पहलवानसिंह पर पाँच हजार रुपया इनाम घोषित किया था। राजा पारीछत को दो हजार रुपया मासिक पेंशन देकर सन् १८४२ में कानपुर निर्वासित कर दिया गया। कुछ दिनों बादवे परमधाम को सिधार गये। उनकी वीरता की अकथ कहानियाँ लोकगीतों के माध्यम से आज भी भली प्रकार सुरक्षित हैं। इन्हीं में ""पारीछत कौ कटक'' नामक काव्यमय वर्णन भी उपलब्ध है।
सन् १८५७ की क्रान्ति में लखैरी छतरपुर के दिमान देशपत बुन्देला ने महाराज पारीछत की विधवा महारानी का पक्ष लेकर युद्ध छेड़ दिया और वे कुछ समय तक के लिये जैतपुर लेने में भी सफल हुए। दिमान देशपत की हत्या का बदला लेने के लिए अक्टूबर १९६७ में उनके भतीजे रघुनाथसिंह ने कमर कसी।
""पारीछत कौ कटक'' अधिकतर जनवाणी में सुरक्षित रहा। ऐसा जान पड़ता है कि इसे लिपितबद्ध करने के लिए रियासती जनता परवर्ती ब्रिथ्टिश दबदबे के कारण घबराती रही। लोक रागिनी में पारीछत के गुणगान के कतने ही छन्द क्रमशः लुप्त होते चले गये हों, तो क्या अचरज है। कवि की वर्णन शैली से प्रकट है कि उसने प्रचलित बुन्देली बोली में नायक की वीरता का सशक्त वर्णन किया है। महाराज पारीछत के हाथी का वर्णन करते हुए वह कहता है-
""ज्यों पाठे में झरना झरत नइयां,
त्यों पारीछत कौ हाथी टरत नइया।।
पाठे का अर्थ है एक सपाट बड़ी चट्टान। शुद्ध बुन्देली शब्दावली में ""नइयाँ'' नहीं है की मधुरता लेकर कवि ने जो समता दिखाई है, वह सर्वथा मौलिक है, और महाराज पारीछत के हाथी को किसी बुन्देलखण्उ#ी पाठे जैसी दृढ़ता से सम्पन्न बतलाती है।
चरित नायक महाराज पारीछत की वीरता और आत्म निर्भरता से शत्रु का दंग रह जाना अत्यन्त सरल शब्दावली में निरुपित हुआ हैं।
""जब आन पड़ी सर पै को न भओ संगी।
अर्जन्ट खात जक्का है राजा जौ जंगी।।''
बुन्देली बोली से तनिक भी लगाव रखने वाले हिन्दी भाषी सहज ममें समझ सकेंगे कि पोलिटिकल एजेन्ट का भारतीय करण ""अर्जन्ट'' शब्द से हुआ है। जक्का खाना एक बुन्देली मुहावरा है जिसका बहुत मौजूं उपयुक्त प्रयोग हुआ है- "चकित रह जाना' से कहीं अधिक जोर दंग रह जाने में माना जा सकता है, परन्तु हमारी समझ में जक्का खाना में भय और विस्मय की सम्मिलित मात्रा सविशेष है।
पारीछत नरेश में वंशगत वीरता का निम्न पंक्तियों में सुन्दर चित्रण हुआ है।
""बसत सरसुती कंठ में, जस अपजस कवि कांह।
छत्रसाल के छत्र की पारीछत पै छांह।।''
पारीछत के कटक का निम्नलिखित छन्द वर्णन शैली का भली प्रकार परिचायक है-
""कर कूंच जैतपुर से बगौरा में मेले।
चौगान पकर गये मन्त्र अच्छौ खेले।।
बकसीस भई ज्वानन खाँ पगड़ी सेले।
सब राजा दगा दै गये नृप लड़े अकेले।।
कर कुमुक जैतपुर पै चढ़ आऔ फिरंगी।
हुसयार रहो राजा दुनियाँ है दुरंगी।।
जब आन परी सिर पै कोऊ न भऔ संगी।
अर्जन्ट खात जक्का है राजा जौ जंगी।।
एक कोद अर्जन्ट गऔ, एकवोर जन्डैल।
डांग बगोरा की घनी, भागत मिलै न गैल।।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि ""पारीछत को कटक'' का बुन्देली रचनाओं में महत्वपूर्ण स्थान है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस रचना का हिन्दी साहित्य में विशिष्ट महत्व है।

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