Friday 27 October 2017

Nearest airport to Jaitpur Belatal



Jaitpur‘s nearest airport is Khajuraho Airport situated at 62.4 KM distance. Few more airports around Jaitpur are as follows.

Khajuraho Airport62.4 KM.
Jhansi Airport104.5 KM.
Kanpur Airport149.9 KM.

Monday 2 January 2017

Want to know more about the Jaitpur Block-Belatal?

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About Jaitpur Block

Jaitpur is a one of the mpst biggest block located in Mahoba district in Uttar Pradesh. Located in rural area of Uttar Pradesh, it is one of the 5 blocks of Mahoba district. According to the government register, the block code of Jaitpur is 404. The block has 126 villages and there are total 27939 families in this Block. Tha post office name is Jaitput and and station name is belatal which is going to soon town-area

Looking about the Population of Jaitpur Block?

Jaitpur's population is 158010. Out of this, 83597 are males whereas the females count 74413 here. This block has 23692 kids in the age group of 0-6 years. Out of this 12533 are boys and 11159 are girls.

Literacy rate of Jaitpur Block

Literacy ratio in Jaitpur block is 52%. 82693 out of total 158010 population is educated here. Among males the literacy rate is 62% as 51943 males out of total 83597 are literate however female literacy ratio is 41% as 30750 out of total 74413 females are literate in this Block.

The dark part is that illiteracy rate of Jaitpur block is 47%. Here 75317 out of total 158010 persons are illiterate. Male illiteracy rate here is 37% as 31654 males out of total 83597 are illiterate. In females the illiteracy ratio is 58% and 43663 out of total 74413 females are illiterate in this block.

Agricultural status of Jaitpur Block

The number of occupied people of Jaitpur block is 67458 still 90552 are non-working. And out of 67458 occupied person 23571 persons are completely dependent on farming.

Read More in Hindi about the Mahoba:

आज भी खरे हैं महोबा के तालाब और बावड़ियाँ

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वीर आल्हा-ऊदल की नगरी महोबा में यत्र-तत्र सर्वत्र बिखरे सरोवर इसके सौंदर्य में चार चाँद लगाते हैं। महोबा में मानसून का सदियों से अभाव रहा है। यहाँ पर वर्षा केवल 95 सेन्टीमीटर होती है। अत: यहाँ के शासकों ने जनहित को सर्वोपरि मानकर जलाशयों के निर्माण को वरीयता दी और कालांतर में अपने और परिजनों के नाम पर सरोवरों के निर्माण की एक परम्परा ही चल पड़ी और जलाशयों के मध्य या उसके तट पर सुंदर स्मारकों का निर्माण कर उसकी कीर्ति को चिरस्थायी बनाने का स्तुत्य प्रयास किया गया। यहाँ के पठारी धरातल को देखते हुए तालाब निर्माण ज्यादा लोकप्रिय हुआ। चंदेलों ने तड़ागों को निर्मित कर उनका मंदिरों से संयोजन किया।
इस क्रम में रहेलिया सागर सबसे पहले अस्तित्व में आया जिसका निर्माण चंदेल वंश के पाँचवे शासक राहिलदेव वर्मन ने कराया। वर्षा के उपरांत जब यह तड़ाग जल से पूरित हो जाता है तो कमल-कुमुदनियों पर भ्रमर और विदेशी पक्षियों का कलरव देखते ही बनता है। रहेलिया सागर से गोखार पहाड़ का दृश्य मनभावन लगता है। रहेलिया सागर का निकटस्थ सूरजकुण्ड से आंतरिक सम्पर्क है। चंदबरदाई ने लिखा है कि रहेलिया सागर का निर्माण आल्हा के पिता दक्षराज ने कराया था, किन्तु इसकी पुष्टि किसी अन्य स्रोत से नहीं होती।
कीरत सागर का निर्माण राजा कीरत वर्मन ने चंद्राबल की सहायक चंदानौर नदी को रोक कर कराया। तुलसीदास ने त्रिवेणी तीरे बसे प्रयागराज के बारे में लिखा है-
को कहि सकइ प्रयाग प्रभाउ,
कलुश पुंज कुंजर मृगराउ।
कुछ ऐसी ही मान्यता महोबा के कीरत सागर के बारे में भी है। महोबा का कोई भी संस्कार हो- तीर्थ-व्रत, मुंडन-छेदन बिना कीरत सागर के पूरा नहीं होता। यहाँ के लोकगीतों में गाया भी जाता है- ‘अमर भरो कीरत का पानी।’ इस सागर के निर्माण के समय राजा कीरत वर्मन ने आर्यावर्त के सभी तीर्थों का जल लाकर छोड़ा था, इसीलिए इसे बुंदेलखण्ड का तीर्थराज माना जाता है। बुंदेलखण्ड के लोग कीरत सागर के जल को साक्षी मानकर आज थी शपथ लेते हैं -
जितने तीरथ महीलोक में, वेद पुरान बखान
कीरत सागर में परे, तिन-तिन के जल आन
वीर वेदुला का चढ़वइया, छोटा दक्षराज का लाल
रात के सपने साचे कर ले, जब जल पिये किरतुआ ताल
कीरत सागर के किनारे मिट्टी लाल अथवा खूनी रंग की है। मृदाविज्ञानियों के इसके पीछे अपने तर्क हो सकते हैं, लेकिन यहाँ के निवासियों का मानना है कि इस सागर के किनारे लड़े गये रक्तरंजित युद्धों के कारण यह मिट्टी खूनी है। इसमें सबसे भयावह युद्ध कजलियों की लड़ाई थी जो 1181 ई. में पृथ्वीराज चौहान और चंदेलों के बीच लड़ी गई, जिसमें चंदेलों की विजय हुई। कीरत सागर अपने आगोश में ढेरों स्मारक समेटे हैं - जिसमें आल्हा की चौकी, ताला सैयद और झिल्लन खां की मजार, आल्हा का अखाड़ा प्रमुख है। आल्हा का एक अखाड़ा मैहर में भी मान्य है।
कीरत सागर की पवित्रता को देखते हुए ताला सैयद ने अपनी वसीयत में लिखा था कि उनका इंतकाल कहीं भी हो, उन्हें कीरत सागर के किनारे ही सुपुर्दे खाक किया जाय। बैरागढ़ के युद्ध में जब ताला सैयद वीरगति को प्राप्त हुए तो आल्हा उन्हें खुद लेकर महोबा आए और कीरत सागर के किनारे धुबनी पहाड़ी पर उन्हें दफनाया गया। ताला सैयद चंदेलों के शस्त्र प्रशिक्षक थे। उन्होंने आल्हा-ऊदल, मलखान-सुलखान, ब्रह्मा, ढेबा, दौगड़ दौआ जैसे रणबांकुरे तैयार किए, जिनकी छाँव में परमाल का स्वर्णिम काल बीता-
कडुवल पानी गढ़ महुबे का, जहाँ नर-नारि करे तरवार
हाथी पैदा कजली वन में, घोड़ पैदा काबुल कंधार
सूर पैदा गढ़ महुबे में, जिनकी छाँव बसे परमार
दौगड़ दौआ गढ़ महुबे के, भारी सूर महोबा क्यार
ताला सैयद के पुत्रों की सूची भी आल्हखण्ड में दी गई है- अली अलामत औ दरियाई बेटा भाले औ सुल्तान। ताला सैयद के दौर में तलवारबाजी ही महोबा का मुख्य व्यवसाय बन गई। आल्हखण्ड में इसका अतिरंजित वर्णन है-
बड़े लड़इया रहे महोबा के, जिनतें काँप रही तरवार
नगर महोबा की जागा में, सातों जात करे तरवार
बनिया बधिया कोउ न लादै, न व्यापारी बनिज को जाए
नगर महोबा की जागा में, सब तरवार तरै का खाए
कीरत सागर के किनारे ही सिंहनाद अवलोकितेश्वर की वह मूर्ति मिली थी जो आजकल लखनऊ संग्रहालय में है और जिसे विश्व की दस सर्वाधिक सुंदरतम मूर्तियों में स्थान दिया गया है। कजली युद्ध की विजय स्मृति में हवेली दरवाजा शहीद स्थल से रक्षाबंधन के पर्व पर एक विजय जुलूस निकलता है जिसका समापन कीरत सागर के तट पर होता है। उस दिन कीरत सागर के तट पर बुंदेलखण्ड का सबसे बड़ा मेला लगता है। आल्हा की चौकी एक मंच का रूप धारण कर लेती है और आल्हा परिषद के संयोजक शरद तिवारी दाउ के सौजन्य से एक सप्ताह तक रात-दिन लगातार बुंदेली नृत्य और गायन होता रहता है। पुष्ट स्रोतों के मुताबिक प्रबोधचन्द्रोदय नाटक का प्रथम मंचन भी कीरत सागर के तट पर हुआ था। मदन सागर का निर्माण मदनवर्मन ने मकरध्वज नदी को रोककर कराया। इस नदी में मगरमच्छों की बहुतायत के कारण इसे मकरध्वज नदी नाम दिया गया। महोबा का मगरिया मुहल्ला आज भी इस नदी के नामकरण का गवाह है। मदनसागर के आगोश में सर्वाधिक ऐतिहासिक स्मारक हैं। इसमें खकरामठ, मझारी द्वीप, इंदल की बैठक, जैन तीर्थकर आदि प्रमुख हैं। सागर का निर्माण 1129-63 ई. माना गया है। पाँच छोटे-छोटे द्वीप इस सागर की शोभा में वृद्धि करते हैं।
मदन सागर के मध्य सर्वाधिक विस्मयकारी निर्माण है- खकरामठ। इसकी लम्बाई 42 फीट और ऊँचाई 103 फीट है। इसका मुख्य द्वार पूर्व दिशा की ओर है जबकि दो अन्य उत्तर और दक्षिण दिशा में हैं। मंदिर का गर्भगृह 12-12 वर्ग फीट है। लगभग 15 फीट की ऊँचाई पर इसमें अलंकृत कोणदार मंडप हैं। खकरा मठ के ऊपर चारों कोनों पर चार शार्दूल रखे गए थे, जो अब विलुप्त हैं। इस मठ तक पहुँचने के लिये किले से एक पथ बनवाया गया था, जो वर्षा काल में डूब जाता है।
कनिंघम ने इसे अपने यात्रा वृतांत में शैव मंदिर बताया है। उनके अनुसार दक्षिणी भारत के शैव मंदिरों में काकरा आरती होती है। उसी काकरा से इसका नाम खकरा पड़ा। जल राशि के मध्य होने के कारण यह मुस्लिम आक्रमणों से सुरक्षित बचा रहा। किंतु 1934 ई. में आए भूकम्प से इसे कुछ हानि अवश्य पहुँची है।
मदन सागर के बीच में 5 छोटे-छोटे द्वीप हैं जिसमें मुख्य को मझारी द्वीप कहा जाता है। कनिंघम ने मझारी द्वीप को विष्णु मंदिर बताया है। द्वीप के चारों तरफ बिखरे पड़े हाथी कनिंघम के इस मत की पुष्टि करते हैं, क्योंकि विष्णु मंदिर के द्वार पर हाथियों को द्वारपाल के रूप में रखने की परम्परा आज भी विद्यमान है। ऐसे आठ हाथी मंझारी के चारों तरफ आज भी बिखरे पड़े हैं, और इनका अलंकरण आज भी स्पष्ट है। स्थानीय निवासियों के अनुसार बाढ़ में जब ये हाथी डूबने लगते हैं तो इनसे बचाओ-बचाओ की आवाज आती है। खकरामठ की तरह मझारी भी एक संरक्षित स्मारक है।
चंदेल नरेश मझारी द्वीप का प्रयोग अपनी गोपनीय मंत्रणा के लिये भी करते, जहाँ वो नौका के माध्यम से आते थे। इस समय वीरभूमि महोबा को जलापूर्ति मदन सागर से ही की जाती है। आल्हखण्ड में लिखा है कि मदन सागर में नित्य स्नान करने से कायर भी वीर हो जाता है-
जो नहाय निसदिन मदनसागर में
तो मेहरा सूर होइ जाय
महोबा- कबरई मार्ग पर रेलवे क्रॉसिंग के पास एक सागर है जिसे किड़ारी तालाब कहा जाता है। यह स्थल चंदेल काल में क्रीड़ागिरि था जहाँ पर युवकों को मल्ल युद्ध आदि का प्रशिक्षण दिया जाता था। इसी क्रीड़ागिरि के नाम पर इस तालाब को किड़ारी सागर कहते हैं।
किड़ारी सागर से थोड़ी दूर पर दिसरापुर सरोवर है। आल्हा-ऊदल के बाबा घोसरदेव को इस जगह राजा परमाल ने जागीर दी थी। घोसरदेव के नाम पर ही इस स्थान का नाम दिसरापुर पड़ा। इस तालाब के किनारे ही आल्हा के महलों के अवशेष हैं।
आल्हा-ऊदल के एक भाँजे सियाहरि थे। उनका गाँव उन्हीं के नाम पर सिजहरी कहा जाता है। सिजहरी में एक बहुत बड़ा तालाब है। तालाब के किनारे ही सिजहरी का चंदेल कालीन मठ है।
कुल पहाड़ में कुछ तालाब बहुत सुंदर अवस्था में है। कुल पहाड़ का गहरा ताल आज भी सबको आकर्षित करता है और कुल पहाड़ में जलापूर्ति का मुख्य साधन है। छत्रसाल कालीन गढ़ी टौरिया के किनारे एक तालाब है, जिसे चौपड़ा कहा जाता है। इस तालाब में स्नान हेतु कक्ष बने हैं। गढ़ी में रहने वाले विशिष्ट वर्ग के लोग यहाँ आकर स्नान करते थे। चौपड़ा से गढ़ी को एक बंद मार्ग द्वारा जोड़ा गया है। यह मार्ग आज भी उतनी ही मजबूती से विद्यमान है। इस आंतरिक मार्ग की विशेषता है कि इसमें छत पर जालियाँ बनायी गई हैं ताकि नीचे मार्ग पर प्रकाश रहे। स्थापत्यकार की इस बात के लिये प्रशंसा करनी होगी कि उसने सुरक्षा, प्रकाश और शील का एक साथ ध्यान रखा।
सूपा में कन्हैया जू के चबूतरे के पास एक खूबसूरत बावड़ी है, जिसकी मरम्मत अभी हाल में ही की गई है। महोबा में मिली सभी बावड़ियों में यह सबसे विशाल है। इसकी भव्यता देखते ही बनती है।
Image result for belatal mahoba श्रीनगर अपनी मराठा कालीन बावड़ियों के लिये सर्वाधिक प्रसिद्ध है। यहाँ लगभग 18 बावड़ियाँ मिली है। इसमें एक घुड़बहर है, जो किले के मुख्य द्वार के पास है। घुड़सवार इसमें बिना नीचे उतरे अपने अश्व को पानी पिला सकता था और फिर ढलान से आगे बढ़ जाता था। किले के अंदर दो बावड़ियों में से एक में नीचे सीढ़ियों के पास कक्ष बना है, जिसमें रनिवास की महिलाएँ स्नानोपरांत वस्त्र बदलती थीं। महोबा की किसी अन्य बावड़ी में कक्ष नहीं बना है। श्रीनगर में कुछ बड़े तालाब भी हैं जिसमें दाउ का तालाब और बड़ा ताल मुख्य है।

महोबा नगर के बीच में कल्याण सागर का निर्माण वीरवर्मन ने अपनी पत्नी कल्याणी देवी की स्मृति में कराया। कल्याण सागर का संपर्क विजय सागर से है।

मोबा-कबरई मार्ग पर दाहिनी ओर विजयसागर है, जिसका निर्माण सर्वप्रथम प्रतिहारों के समय हुआ। कालांतर में चंदेलों और बुंदेलों के समय इसका सौंदर्यीकरण किया गया। छत्रसाल के राज्य बँटवारे में महोबा-श्रीनगर का क्षेत्र उनके पुत्र मोहन सिंह के अधिकार में आया। उन्होंने विजयसागर को रमणीक बनाया और इसके किनारे सुंदर घाटों की शृंखला और एक गढ़ी बनाई। विजय सागर यूपी सरकार का राजकीय पक्षी विहार है। यह सैलानियों की सर्वाधिक पसंदीदा जगह है। विजय सागर ने अकाल के समय भी महोबा को जलदान दिया था।

जैतपुर का बेलाताल महोबा के तालाबों में सर्वाधिक विस्तृत है। वर्षा ऋतु में यह झील 9 मील तक विस्तृत हो जाती है। शरद ऋतु में यहाँ साइबेरियन पक्षी बड़ी तादाद में आकर अपना बसेरा बनाते हैं। बेलाताल के किनारे खड़ा गगनचुम्बी बादल महल पेशवा बाजीराव-मस्तानी की स्मृति को संजोए है।

बेलाताल का निर्माण मदनवर्मन के अनुज बैलब्रह्म ने कराया था। किवदंती है कि जब बलवर्मन ने इस झील का निर्माण प्रारंभ कराया तो इसका तटबंध टूट जाता था। एक युगल की बलि दी गई और रामेश्वरम से लाकर झील के बीचों-बीच एक शिवलिंग स्थापित किया गया, तब यह निर्माण पूरा हुआ। यह शिवलिंग झील के मध्य अभी भी विद्यमान है। बेलाताल का नामकरण जहाँ बलवर्मन के आधार पर माना जाता है, वहीं इसे त्रैलोक्यवर्मन द्वारा अपनी पत्नी बेला के लिये भी निर्मित बताया जाता है।

कबरई का ब्रह्मताल अपने घाटों के लिये विशिष्ट है। ये घाट कुछ इस कोण से बने हैं कि इसमें स्नान करने वाले एक दूसरे को देख नहीं पाते इस ताल के किनारे एक मठ बना है, जो ऊँची जगती पर निर्मित है। इसका निर्माण भी मदनवर्मन के अनुज बलवर्मन द्वारा माना गया है।

Related image कबरई से बांदा मार्ग पर रेवई के निकट एक सुकौरा ताल है जिसके निर्माता का नाम अज्ञात है। इससे थोड़ी दूरी पर एक मठ है, जो चंदेल स्थापत्य का एक बेहतरीन नमूना है। इसका निर्माण एक ऊँची जगती पर चूल पद्धति से हुआ है। आकृति में यह रहेलिया के सूर्य मंदिर से मिलता-जुलता है। इसमें एक गर्भगृह है तथा गर्भगृह के समक्ष 24 स्तम्भ हैं। मुख्य द्वार के अतिरिक्त दो बड़ी झांकियाँ हैं, जो किसी अन्य मठ में नहीं मिलती।

चरखारी के तालाब सर्वाधिक सुंदर है। बुंदेला राजाओं द्वारा बनवाये सातों तालाब एक दूसरे से आंतरिक संपर्क से जुड़े हैं, जो हमेशा कमल-कुमुदनियों से सुशोभित रहते हैं। रतन सागर, जय सागर, कोठी ताल यहाँ के मुख्य आकर्षण हैं।

जिन दिनों ये तालाब अपने शबाब पर थे, उन दिनों महोबा का सौंदर्य अप्रतिम था। सुरम्य घाटों से टकराती अथाह जलराशि, कमल के फूलों पर गूँजते भ्रमर, पक्षियों का कलरव, राजाओं का सायंकालीन नौका विहार, तालाबों के किनारे मंदिरों से गूँजते भजन, इन सब दृश्यों की कल्पना ही एक स्वर्गिक सुख का आभास कराती है। आल्हखण्ड में इस सौंदर्य की एक झलक है-

जैसे इंद्रपुरी मन भावन, सब सुख खानि लेउ पहिचानि
तैसे धन्य धरणि महुबे की, भट निर्मोह वीर की खानि
कंचन भवन विविध रंग रचना, अद्भुत इंद्र मनोहर जाल
रत्नजटित सिंहासन शोभित, तापर न्याय करे परमाल

जैनग्रंथ प्रबंधकोश में वर्णित है कि महोबा नगर का नित्य अवलोकन करने वाला भी गूँगे मनुष्य की भाँति इसके सौंदर्य व विशेषता को अंतर्मन से अनुभव तो कर सकता है, परंतु इसका वर्णन नहीं कर सकता-

किन्तु महोबा के लोग इस सौंदर्य को सहेज कर नहीं रख सके। श्रीनगर की घुड़बहर जो शायद अपने आप में दुनिया की इकलौती रचना हो सकती है, उसे मुहल्ले वालों ने कूड़ेदान बनाकर पाट दिया। उरवारा का रतन सागर जो बेलाताल से आकार में थोड़ा ही छोटा है, उसमें अवैद्य खेती होती है। महोबा का तीर्थराज कीरतसागर भी समाप्त प्राय है। रक्षाबंधन के पर्व पर कजली प्रवाहित करने हेतु उसमें पानी नहीं बचा। मदन सागर अब एक Latrine tank रह गया है। आस पास मुहल्ले के लोग इसका इस्तेमाल शौच के लिये करते हैं।

Image result for belatal mahoba इन तालाबों और बावड़ियों के मिट जाने से महोबा में भूजल स्तर नीचे चला गया है। पानी के लिये यहाँ गर्मियों में भाई-बंधु एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। सिर पर घड़ा रख कर पानी के लिये मीलों भटकती औरतें गाती हैं-

गगरी न फूटे खसम मरि जाए,
भौंरा तेरा पानी गजब करि जाए।

इन तालाबों और बावड़ियों के कारण कभी महोबा का सौंदर्य सत्य था, अब इनके पट जाने से चंद्रमा प्रसाद दीक्षित ‘ललित’ के शब्दों में पानी का अकाल सत्य है-

खसम मरे गगरी न फूटे, घटे न धौरा ताल
तैर रही फटी आँखों में, जले सदा ये सवाल
बादल बरसे नदी किनारे, तरसे कोल मड़इया
बिन पानी के सून जवानी, हा दइया हा मइया

महोबा के अभिशप्त नागरिकों ने बेरहमी से अपने ही जंगल काट डाले हैं। फलत: हरियाली विलुप्त हो गई है। आल्हखण्ड की चंदन बगिया अब ढूढ़े नहीं मिलती। महोबा के जंगलों में शेरों की एक प्रजाति पाई जाती थी- शार्दूल। किन्तु जंगलों के साथ यह प्रजाति भी विलुप्त हो गई है। चंदेलों का यह राजकीय चिह्न शार्दूल अब केवल उनके स्मारकों में ही नजर आता है। प्रकृति भी बड़ी निर्दयता से महोबा से बदला ले रही है। कई वर्षों से यहाँ बारिश नहीं हो रही है। गर्मी में तापमान 50 डिग्री तक बढ़ जाता है। चंदेलों का महोबा अब मुसाफिरों को छाँव नहीं दे पाता, फलत: दिन में सड़कें वीरान हो जाती हैं-

घर ते निकसिबे कूँ, चाहत न चित्त नैक
घोर घाम, तप्त धाम सम सरसत है
लुअन की लोय तेज, तीर सी लगत तीखी
जम की बहिन सी, दुपैरी दरसत है
नारी-नर, पंछी-पशु, पेड़न की कहौं कहाँ
ठौर-ठौर ठंडक की नाई तरसत है
छत्तन पे, पत्तन पे, अट्टन पे, हट्टन पे
आजु कल शहर में, आग बरसत है। 
बुन्देलखण्ड का कश्मीर है चरखारी
 
यूपी के पहले वजीरे आला जनाब गोविंद वल्लभ पंत जब चरखारी तशरीफ लाये तो चरखारी का वैभव एवं सौन्दर्य देखकर उनके मुँह से अचानक निकल पड़ा कि अरे यह तो बुन्देलखण्ड का कश्मीर है। चरखारी उन्हें इतना प्रिय था कि आजादी के बाद रियासतों के विलीनीकरण के समय जब चरखारी की अवाम ने म.प्र. में विलय के पक्ष में अपना निर्णय दिया तो पं. गोविंद वल्लभ पंत सिर के बल खड़े हो गए। तत्काल चरखारी के नेताओं को बुलावा भेजा, महाराज चरखारी से गुफ्तगू की और इस प्रकार बुन्देलखण्ड का कश्मीर म. प्र. में जाने से बच गया।

पंत जी ने चरखारी को कश्मीर यूँ ही नहीं कह दिया था। राजमहल के चारों तरफ नीलकमल और पक्षियों के कलरव से आच्छादित, एक दूसरे से आन्तरिक रूप से जुड़े- विजय, मलखान, वंशी, जय, रतन सागर और कोठी ताल नामक झीलें, चरखारी को अपने आशीर्वाद के चक्रव्यूह में लपेटे कृष्ण के 108 मन्दिर- जिसमें सुदामापुरी का गोपाल बिहारी मन्दिर, रायनपुर का गुमान बिहारी, मंगलगढ़ के मन्दिर, बख्त बिहारी, बाँके बिहारी के मन्दिर तथा माडव्य ऋषि की गुफा और समीप ही बुन्देला राजाओं का आखेट स्थल टोला तालाब- ये सब मिलकर वाकई चरखारी में पृथ्वी के स्वर्ग कश्मीर का आभास देते हैं। चरखारी का प्रथम उल्लेख चन्देल नरेशों के ताम्र पत्रों में मिलता है। देववर्मन, वीरवर्मन, हम्मीरवर्मन के लेखों में इसका नाम वेदसाइथा था। राजा परमाल के पुत्र रंजीत ने चरखारी को अपनी राजधानी बना चक्रधारी मन्दिर की स्थापना की। चक्रधारी मन्दिर के नाम पर ही राजा मलखान सिंह के समय वेदसाइथा का नाम चरखारी पड़ा। कुछ स्थानीय लोग इसे महराजपुर भी कहते हैं। कजली की लड़ाई में जब रंजीत मारे गए तो चरखारी उजाड़ हो गई। इन्हीं रंजीत के नाम पर किले के सामने रंजीता पर्वत है। एपीग्राफिक इंडिका के अनुसार खंदिया मुहल्ला और टोला तालाब इन्हीं रंजीत का बनवाया हुआ है। टोला ताल आज एक खुबसूरत पिकनिक स्पॉट है।

चन्देलों के गुजर जाने के सैकड़ों वर्ष बाद राजा छत्रसाल के पुत्र जगतराज के समय चरखारी का पुन: भाग्योदय होता है। आखेट करते समय जगतराज एक दिन मुंडिया पर्वत पहुँचे। वहाँ उन्हें चुनू वादे और लोधी दादा नामक दो सन्यासी मिले। उन्होंने बताया कि वो दोनों यहाँ एक हजार वर्ष से तप कर रहें हैं और मुंडिया पर्वत ही ऋषि माण्डव्य की तपोस्थली है। जगतराज को इसी समय एक बीजक मिला जिसमें लिखा था-

उखरी पुखरी कुड़वारो वरा, दिल्ली की दौड़ मारे गुढ़ा
सो पावै नौ लाख बहत्तर करोड़ का घड़ा


चुनू वादे और लोधी दादा सिद्ध योगी थे। उन्होंने जगतराज को बीजक का भावार्थ बताया। मुंडिया पर्वत पर खुदाई की गई और जगतराज को नौ लाख बहत्तर करोड़ स्वर्ण सिक्कों की अपूर्व सम्पदा मिली। जगतराज फूले न समाए। उन्होंने तुरन्त अपने पिता छत्रसाल को पन्ना में यह खुशखबरी भेजी। किन्तु छत्रसाल कुपित हुए। उनके अनुसार क्षत्रिय केवल अपने बाहुबल से यशकीर्ति और धन सम्पदा प्राप्त करता है। उन्होंने तुरन्त सन्देश भेजा-

मृतक द्रव्य चन्देल को क्यों तुम लियो उखार?

वस्तुत: यह धन चन्देलो का था। पृथ्वीराज चौहान से पराजित होने के उपरान्त जब परमाल और रानी मल्हना ने महोबा से कालिंजर को प्रस्थान किया तो उन्होंने अपना धन चरखारी में छुपा दिया था। छत्रसाल के निर्देश पर जगतराज ने बीस हजार कन्यादान किये, बाइस विशाल तड़ाग बनवाए, चन्देलकालीन मन्दिरों और तालाबों का जीर्णोंद्धार कराया। किन्तु इस धन का एक भी पैसा अपने पास नहीं रखा।

जगतराज को एक दिन लक्ष्मी जी ने स्वप्न में आदेश दिया कि मुंडिया पर्वत सिद्धस्थल है। यहाँ मंगलवार को किले का निर्माण करो। मंगलवार को नींव का प्रारम्भ नहीं होता किन्तु लक्ष्मी जी का आदेश शिरोधार्य कर मंगलवार को किले की नींव खोदी गई। अत: इसका नाम मंगलगढ़ पड़ा। ज्येतिषी पुहुपशाह, कवि हरिकेश और मड़ियादो के पं गंगाधर के निर्देशन में किले को भव्य बनाने की कोशिशें दिन-रात चलती रहीं।

यह किला भूतल से तीन सौ फुट ऊँचा है। किले की रचना चक्रव्यूह के आधार पर की गई है। क्रमवार कई दीवालें बनाई गई हैं। मुख्यत: तीन दरवाजें हैं। सूपा द्वार- जिससे किले को रसद हथियार सप्लाई होते थे। ड्योढ़ी दरवाजा- राजा रानी के लिये आरक्षित था। इसके अतिरिक्त एक हाथी चिघाड़ फाटक भी मौजूद था।

किले के ऊपर एक साथ सात तालब मौजूद हैं- बिहारी सागर, राधा सागर, सिद्ध बाबा का कुण्ड, रामकुण्ड, चौपरा, महावीर कुण्ड, बख्त बिहारी कुण्ड। चरखारी किला अपनी अष्टधातु तोपों के लिये पूरे भारत में मशहूर था। इसमें धरती धड़कन, काली सहाय, कड़क बिजली, सिद्ध बख्शी, गर्भगिरावन तोपें अपने नाम के अनुसार अपनी भयावहता का अहसास कराती हैं। इस समय काली सहाय तोप बची है जिसकी मारक क्षमा 15 किमी है। ये तोपें 3 बार दागी जाती थीं। प्रथम- 4 बजे लोगों को जगाने के लिये, दूसरी 12 बजे लोगों के विश्राम के लिये, तीसरी रात में सोने के लिये। तीसरी तोप दागने के बाद नगर का मुख्य फाटक बन्द कर दिया जाता था और लोगों का आवागमन बन्द कर दिया जाता था।

किले में बड़े-बड़े गोदाम बने हुए हैं जिसमें कोदों भरा रहता था। यह अनाज कई वर्षों तक खराब नहीं होता। दुश्मन के घेरे के समय यह अनाज काम आता था। चरखारी के किले का पहला घेरा नोने अर्जुन सिंह ने और दूसरा तात्या टोपे ने 1857 में डाला था। किन्तु किले में रसद और जल की पर्याप्त व्यवस्था होने के कारण तात्या किले को फतह नहीं कर सके। उन्होंने कानपुर में नाना साहब को लिखा- ‘‘ऊँचे पर्वत पर होने के कारण किले पर कब्जा करना मेरे लिये बेहद मुश्किल है। हमारे सैनिक अभी बहुत शेखी बघार रहें हैं किन्तु कुछ दिनों बाद वो हताश हो जाएँगे। कृपया कुछ अफगानी सैनिक मेरे लिये भेज दीजिए ताकि हमें कुछ ताकत मिले।’’

किन्तु किस्मत तात्या के साथ नहीं थी। वह किला फतह नहीं कर सका। तब उसने चरखारी की जनता पर अपना गुस्सा उतारना शुरू किया। राजा जो अभी तक किले में कैद था, से क्रुद्ध होकर क्रान्तिकारियों ने राजमहल के कीमती सामान, यहाँ तक कि फर्नीचर और कालीन भी लूट लिये।

जगतराज के पश्चात विजयबहादुर सिंहासन पर बैठे। साहित्य प्रेमी विजय बहादुर ने विक्रमविरुदावली की रचना की, मौदहा का किला और राजकीय अतिथिगृह- ताल कोठी का निर्माण कराया। यह कोठी एक झील में बनी है। बहुमंजिली यह कोठी अपनी रचना में नेपाल के किसी राजमहल का आभास देती है। इसकी गणना बुन्देलखण्ड की सर्वाधिक खुबसूरत इमारतों में की जाती है। विजय सागर नामक तालाब पर बनी ताल कोठी सरोवर के चहुंदिश फैली प्राकृतिक सुषमा के कारण अधिक आकर्षक प्रतीत होती है। महाराज जयसिंह के काल में नौगाँव के सहायक पोलिटिकल एजेंट मि. थामसन को चरखारी का प्रबन्धक नियुक्त किया गया। इसकी सुन्दरता देखकर थामसन ने इसी तालकोठी को सन 1862 ई. से 1866 ई. तक अपना आवास बनाया था। विजयबहादुर के समय में रियासत को ब्रिटिश साम्राज्ञी की ओर से 1804 और 1811 में सनद मिली और उसके भौगोलिक क्षेत्र में वृद्धि की गई। विक्रमशाहि और विक्रमादित्य विजय बहादुर की उपाधियाँ हैं।

विजय बहादुर के सात पुत्र थे। उनमें एक थे पूरनमल। खाने-पीने और पहलवानी के बड़े शौकीन। सवा मन भोजन करते लेकिन जब सोकर उठते तो रसोइए से पूछते कि मैंने सोने से पहले खाना खाया था कि नहीं? लोग उन्हें चरखारी का महमूद बेगड़ा कहते हैं। पूरनमल की तलवार बत्तीस शेर की थी। इस तलवार से वो एक ही वार में चार पैर वाले पशु को काट देते थे। इसलिये उनकी तलवार का नाम पड़ा- चौरंग। एक बार बांदा के नवाब ने ऊँट काटने की शर्त लगाई किन्तु ऊँट के गले में धोखे से लोहे की जंजीर डाल दी। पूरनमल ने ऊँट का गला एक झटके में काट तो दिया लेकिन उनकी आँखों में खून उतर आया। इस घटना से महाराज विजयबहादुर इतने कुपित हुए कि उन्होंने बांदा के ऊपर आक्रमण कर दिया।

एक बार दंगल हो रहा था, जिसमें बतौर दर्शक राजा और प्रजा सब मौजूद थे। अचानक एक हाथी भड़क गया और उसने लोगों को कुचलना और पटकना शुरू कर दिया। पूरनमल ने उस हाथी के दाँत पकड़ लिये। हाथी के जोर से पूरनमल अखाड़े में धँस गए, लेकिन उन्होंने हाथी का दाँत नहीं छोड़ा। अन्त में हाथी के दाँत से खून निकल आया और वह चिंघाड़ मारता भाग गया।

पूरनमल 18 नारियल एक साथ अपने अंग-प्रत्यंगों में दबाकर फोड़ देते थे। चरखारी के उनके महल वासुदेव मन्दिर में उनकी आज भी सशरीर उपस्थिति मानी जाती है और उनके लिये बिस्तर लगाया जाता है। लोकगीतों में लिखा है कि पूरनमल अपनी चुटकियों से जब सिक्का मसलते थे तो सिक्के के अक्षर मिट जाते थे-

अंक रुपैयन के मल डारे औ फारी गयंदन की हाय
बत्तीस सेर का तेगा लेकर चौरंग काटी बादा जाय


किन्तु महाराज विजयबहादुर के जीवन काल में ही उनके सातों पुत्रों का निधन हो गया। पूरनमल की मौत पर उन्होंने जो दोहा लिखा, वह आज भी हृदय को वेध देता है-

नहिं सूर्य, शशि है नहीं, नहिं उड़गन को दोष
निशि पावक चलने परो, मग जुगनू को दोष


महाराज विजय बहादुर के पश्चात जय सिंह सिंहासन पर बैठे। उन्होंने 1857 के दिल्ली दरबार में भाग लिया। अपने जीवन के अन्तिम समय में उन्हें राज-काज से घृणा हो गई और उनका अधिकांश समय प्रवचन में बीतता था। एक दिन वृन्दावन के मन्दिर में उन्होंने धतूरा खाकर जान दे दी।

इसके पश्चात मलखान सिंह आये। मलखान सिंह एक श्रेष्ठ कवि थे। उन्होंने गीता का काव्यानुवाद किया। उनकी पत्नी रुपकुंवरि एक धार्मिक महिला थीं। रामेश्वरम से लेकर चरखारी तक उन्होंने रियासत के मन्दिर बनवाए जो आज भी चरखारी की गौरव गाथा कह रहे हैं। गीत मंजरी, विवाह गीत मंजरी और भजनावली उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। उनके लिखे भजन बुन्देलखण्ड में आज भी महिलाओं द्वारा गाये जाते हैं।

चरखारी का ऐतिहासिक ड्योढ़ी दरवाजा इन्ही मलखान सिंह के कार्यकाल में बना जिसे महाराष्ट्र के अभियन्ता एकनाथ ने बनवाया। राजमहल और सदर बाजार उन्हीं की देन है। मलखान सिंह के एक हाथी से प्रसन्न होकर वायसराय ने उसे ‘इन्द्रगज’ की उपाधि दी थी।

किन्तु मलखान सिंह की सर्वाधिक प्रसिद्धि उनके द्वारा प्रारम्भ किये गए 1883 ई. में गोवर्धन जू के मेले को लेकर है। यह मेला उस क्षण की स्मृति है जब श्रीकृष्ण ने इन्द्र से कुपित होकर गोवर्धन पर्वत धारण किया था। दीपावली के दूसरे दिन अन्नकूट पूजा से प्रारम्भ होकर यह मेला एक महीना चलता है। यह बुन्देलखण्ड का सबसे बड़ा मेला है। पंचमी के दिन चरखारी के 108 मन्दिरों से देवताओं की प्रतिमाएँ गोवर्धन मेला स्थल लाई जाती हैं। इसी दिन सम्पूर्ण देव समाज ने प्रकट होकर श्रीकृष्ण से गोवर्धन पर्वत उतारने की विनती की थी। सप्तमी को इन्द्र की करबद्ध प्रतिमा गोवर्धन जू के मन्दिर में लाई जाती है। इस एक महीने में चरखारी वृन्दावन हो जाती है-

कार्तिक मास धरम का महीना, मेला लगत उते भारी
जहाँ भीड़ भई भारी, वृंदावन भई चरखारी


एक मास तक चलने वाले इस विशाल मेले में कवि सम्मेलन एवं मुशायरे का आयोजन होता है, जिसमें हिन्दुस्तान के नामचीन शोरा हजरात तशरीफ फरमा होते हैं। चरखारी के मशहूर शायद उजबक चरखारी की वजह से नामचीन शोरा मुफ्त में अपनी सेवाएँ इस मुशायरे को देते थे, किन्तु उजबक चरखारी के इन्तकाल के बाद इस राष्ट्रीय मुशायरे एवं कवि सम्मेलन पर जरूर ग्रहण लगा है। गोवर्धन नाथ जू की झाँकी में जहाँ मुसलमान अपना कंधा देते हैं, वहीं मोहर्रम की सातवी तारीख को घोड़े के जुलूस में हिन्दू भाई बढ़ चढ़ कर भाग लेते हैं। रामदत्त तिवारी ‘अजेय’ इस मेले के बारे में लिखते हैं-

बुन्देलखण्ड का है प्रसिद्ध पावन गोवर्धन मेला
प्रतिवर्ष यही कह जाता है मलखान सिंह नृप अलबेला


मलखान सिंह के पश्चात जुझार सिंह गद्दी पर बैठे। उन्होंने बुन्देलखण्ड के ऐतिहासिक और काव्य ग्रंथों का प्रकाशन करवाया। महाराज अरिमर्दन सिंह अपने नाट्य प्रेम के लिये जाने जाते हैं। कलकत्ता की कोरथियन कम्पनी के कलाकारों को वो चरखारी लाये। आगा हश्र कश्मीरी इसी नाटक कम्पनी से जुड़े थे। वो रोज एक नाटक लिखते और नाट्यशाला में इसका मंचन होता। इस नाट्यशाला में 4000 दर्शकों के बैठने की क्षमता थी। अब नगरपालिका द्वारा इसका उपयोग एक गोदाम के रूप में हो रहा है। अरिमर्दन सिंह ने नेपाल नरेश की पुत्री से विवाह किया और उनके लिये राव बाग महल का निर्माण कराया जिसमें चरखारी का राजपरिवार आज भी रहता है।

अरिमर्दन सिंह के पश्चात जयेन्द्र सिंह शासक हुए। ये चरखारी के अन्तिम शासक थे। इसके पश्चात रियासत का विलय भारत संघ में हुआ। पं. राम सहाय तिवारी ने स्टेट का चार्ज लिया। चन्दला, जुझार नगर, ईसानगर मप्र. में और शेष का विलय उप्र. में हुआ। चरखारी की वंश परम्परा इस दोहे से स्पष्ट है-



इस समय महाराज जयन्त सिंह और रानी उर्मिला सिंह रावबाग महल में रहते हैं। राजा छत्रसाल की वंश परम्परा चरखारी में इन्हीं से चिरागे-रोशन है। रानी उर्मिला सिंह सदरे रियासत कश्मीर कर्ण सिंह के खानदान से ताल्लुक रखतीं हैं और कश्मीर के पुंछ सेक्टर की रहने वाली हैं। कुछ दिनों तक वो चरखारी नगरपालिका की चेयरमैन भी रहीं। जब मैं राजमहल में गया तो उन्होंने पूरी शालीनता से मेरी मदद की। अपने पूर्वज राजाओं के चित्र दिये, 1857 में चरखारी रियासत को लार्ड कैनिंग ने जो सनद दी थी, उसका चित्र उपलब्ध कराया।

चरखारी अपनी साहित्यिक प्रतिभाओं के लिये भी जानी जाती है। हरिकेश जी महाराज जगतराज के राजकवि थे। जगतराज इनकी पालकी में कन्धा देते थे। इनकी लिखी पुस्तक ‘दिग्विजय’ बुन्देलों का जीवन्त इतिहास है। खुमान कवि तथा आगा हश्र कश्मीरी ने चरखारी में रहकर अपनी चमक बिखेरी। आगा हश्र कश्मीरी ने कुल 44 पुस्तकें लिखीं जिनमें 18 नाटक है। नाथूराम, ख्यालीराम तथा मिर्जा दाउद बेग- जिन्होंने कौटिल्य के अर्थशास्त्र का हिन्दी अनुवाद किया, सुप्रसिद्ध पखावज व मृदंग वादक कुंवर पृथ्वी सिंह दाउ, विख्यात कव्वाल फैज अहमद खां, संगीतज्ञ उम्मेद खां, सारंगी वादक स्वामी प्रसाद चरखारी की अन्यतम विभूतियाँ हैं।

चरखारी हिन्दी फिल्मों की मशहूर अदाकारा ट्रेजडी क्वीन मीना कुमारी के लिये भी जानी जाती है, जो आगा हश्र कश्मीरी के खानदान से ताल्लुक के कारण बचपन में कुछ वर्षों चरखारी में रहीं। चरखारी के वैभव एवं सौन्दर्य पर जो अन्धकार छाया है, वह मीना कुमारी के इस शेर से प्रतिबिम्बित होता है-

कई उलझे हुए खयालात का मजमा है मेरा ये वजूद
कभी वफा से शिकायत, कभी वफा मौजूद
पेशवा बाजीराव-मस्तानी के अमर प्रेम का गवाह है जैतपुर-बेलाताल
कमल- कुमुदिनियों से सुशोभित मीलों तक फैले बेलाताल झील के किनारे खड़े जैतपुर किले के भग्नावशेष आज भी पेशवा बाजीराव और मस्तानी के प्रेम की कहानी बयाँ करते हैं। ऋषि जयन्त के नाम पर स्थापित जैतपुर ने चन्देलों से लेकर अंग्रेजों तक अनेक उतार चढ़ाव देखे हैं।

जैतपुर की शोभा में चार-चाँद तब लगा जब 17वें चन्देल नरेश मदन वर्मन के कनिष्ठ भ्राता बलवर्मन ने 1130 ई. में यहाँ पर एक झील का निर्माण कराया जो बेलाताल के नाम से प्रसिद्ध हुई। इन्हीं बलवर्मन के निर्देशन में महोबा का मदन सागर, कबरई का ब्रह्मताल और टीकमगढ़ का मदन सागर भी बना।

कालान्तर में यह क्षेत्र चन्देलों से सूर्यवंशी बुन्देलों के आधिपत्य में आया। राजा छत्रसाल ने अपने पुत्रों के बीच साम्राज्य का विभाजन किया जिसमें ज्येष्ठ हृदयशाह और पन्ना और कनिष्ठ जगतराज को जैतपुर का राज्य मिला। राजा छत्रसाल के निर्देशन में ही जैतपुर का किला बना जिसमें बादल महल और ड्योढ़ी महल विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, जिसका उल्लेख ट्रीफैनथेलर ने भी किया है।

जैतपुर का इतिहास उस समय अचानक मोड़ लेता है जब इलाहाबाद के मुगल सूबेदार मुहम्मद खां बंगश ने 1728 ई. में जैतपुर पर आक्रमण किया और जगतराज को किले में बन्दी बना लिया। राजा छत्रसाल उस समय वृद्ध हो चले थे। मुगलसेना की अपराजेय स्थिति को देखकर उन्होंने एक ओर तो अपने बड़े पुत्र हृदयशाह जो उस समय अपने अनुज जगतराज से नाराज़ होकर पूरे घटनाक्रम के मूकदर्शक मात्र बने थे, को पत्र लिखा कि बारे ते पालो हतो, पौनन दूध पिलाय! जगत अकेलो लरत है, जो दुख सहो न जाये। तो दूसरी ओर उन्होंने मराठा पेशवा बाजीराव से सहायता की विनती निम्न शब्दों में की-

जो गति भई गज ग्राह की, सोगति भई है आय
बाजी जात बुन्देल की, राखों बाजीराव।

बाजीराव को मराठा इतिहास में ‘लड़ाकू पेशवा’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने जंजीरा के सिद्दियों और पुर्तगालियों को हराकर विशेष ख्याति अर्जित की थी। शिवाजी के नारे ‘हिन्दू पद पादशाही’ को उनके समय विशेष बुलन्दी मिली। हैदराबाद के निजाम का भी इन्होंने मान-मर्दन किया। पेशवा बाजीराज (1720-40 ई.) इतने खुबसूरत थे कि वो घोड़े पर चलते तो महिलाएँ उनको देखने के लिये घरों से निकल आतीं। 1737 ई. में जब पेशवा ने महज कुछ घुड़सवारों के साथ दिल्ली पर आक्रमण किया तो मुगल बादशाह दिल्ली छोड़ने के लिये तैयार हो गया।

राजा छत्रसाल का पत्र पाते ही पेशवा अपनी घुड़सवार सेना के साथ जैतपुर आते हैं और एक रक्तरंजित युद्ध में मुहम्मदखां बंगश पराजित होता है और उसका पुत्र कयूम खान जंग में काम आता है, जिसकी कब्र मौदहा में आज भी विद्यमान है।

इस प्रकार वृद्धावस्था में राजा छत्रसाल की आन बची। उन्होंने पेशवा बाजीराव को अपना तीसरा पुत्र माना और झाँसी, गुना का क्षेत्र मराठों को मिला। जैतपुर के युद्ध ने मराठों को बुन्देलखण्ड में स्थापित किया। मराठाकालीन किले, बावड़ियाँ और मन्दिरों के अवशेष आज भी बुन्देलखण्ड में उनके गौरव की गाथा गाते हैं। छत्रसाल की वसीयत डॉ. महेन्द्र प्रताप सिंह की पुस्तक में उद्धृत है-

‘‘लिख दई श्री महाराजाधिराज महाराजाश्री राजा छत्रसाल जू देव ने येते श्री पेशवा बाजूराव जू कौ, आपर बंगस लो लड़ाई में हमने तुमको बलावो, तुमने फतै करी’’ ऊको भगा दयौ, हम तुमारे ऊपर खुशी हैं, तुमने बुढ़ापे में बड़ी मरजाद राखी ती पाय, तुमकौ राज्य से तीसरा हीसा मिलहै। अबे ईसैं नहीं देते कै लड़ै मिरे से कछु जागा और मिल गई तौ फिर सब हिसाब लगा कै तीसरा हीसा दवो जैहै। हमै सो अपना समझिओ। हाल में दो लाख रुपैया तुमारे खर्च को दए जात हैं सौ लियौ।’’
(बैसाख सुदि 3 संवत 1783 बमुकाम जैतपुर)

जैतपुर के युद्ध में पेशवा ने एक महिला को भी लड़ते हुए देखा और उसके कद्रदान हो गए। पेशवा ने छत्रसाल से उस महिला योद्धा की माँग की। यह योद्धा मस्तानी थी, जो छत्रसाल की पुत्री थी। डॉ. गायत्री नाथ पंत के अनुसार छत्रसाल ने मध्य एशिया के जहानत खां की एक दरबारी महिला से विवाह किया था, मस्तानी उसी की पुत्री थी। मस्तानी प्रणामी सम्प्रदाय की अनुयायी थी, जिसके संस्थापक प्राणनाथ के निर्देश पर इनके शिष्य कृष्ण और पैगम्बर मुहम्मद की पूजा एक साथ करते थे। छत्रसाल ने ड्योढ़ी महल में एक समारोह में पेशवा और मस्तानी का विवाह कराकर उसे पूना विदा किया।

छत्रसाल ने इस कन्यादान के माध्यम से एक तीर से कई निशाने साधे। छत्रसाल जानते थे कि बुन्देला साम्राज्य जो उसके अनेक पुत्रों में विभाजित है, मुगलिया कोप से तभी तक सुरक्षित रह सकता है, जब उस पर मराठों का वरदहस्त हो। विवाह के बाद यह उम्मीद भी थी कि बाजीराव सरदेशमुखी और चौथ की माँग नहीं करेगा जो कि मराठों का पुश्तैनी कर था। बुन्देलों से मित्रता बाजीराव की भी मजबूरी थी। दिल्ली पर आक्रमण का रास्ता बुन्देलखण्ड से होकर जाता था। इस क्षेत्र में मित्रों का होना बाजीराव के लिये बहुत आवश्यक था। छत्रसाल की मृत्यु के उपरान्त उसके दोनों पुत्रों हृदयशाह और जगतराज ने इस मित्रता की डोर को बखूबी निभाया। वो लड़ाइयों में बाजीराव के अन्त तक साथ रहे, कुछ बड़ी लड़ाइयों का खर्च भी उठाया।

छत्रसाल की पुत्री मस्तानी जब ढेर सारे अरमान लिये पूना पहुँची तो पूना उसको वैसा नहीं मिला, जैसा उसने सोचा था। पेशवा की माता एवं छोटे भाई ने इस सम्बन्ध का पुरजोर विरोध किया। पेशवा ने मस्तानी का नाम नर्मदा रखा किन्तु यह मान्य नहीं हुआ। पेशवा और मस्तानी को एक पुत्र हुआ जिसका नामकरण पेशवा ने कृष्ण किया किन्तु पारिवारिक सदस्यों के विरोध के कारण कृष्ण का रूपान्तरण शमशेर बहादुर किया गया। रघुनाथ राव के यज्ञोपवीत संस्कार तथा सदाशिवराव के विवाह संस्कार के अवसर पर उच्चकुलीन ब्राह्मणों ने यह स्पष्ट कर दिया कि जिस संस्कार में बाजीराव जैसा दूषित और पथभ्रष्ट व्यक्ति उपस्थित हो वहाँ वे अपमानित नहीं होना चाहते। इसी प्रकार एक दूसरे अवसर पर जब बाजीराव शाहू से भेंट करने के लिये उनके दरबार में गये तो मस्तानी उनके साथ थी। जिसके कारण शाहू ने उनसे मिलने से इनकार ही नहीं किया बल्कि मस्तानी की उपस्थिति पर असन्तोष भी व्यक्त किया।

बाजीराव-मस्तानी का प्रेम इतिहास की चर्चित प्रेम कहानियों में है। पेशवा ने विजातीय होते हुए भी मस्तानी को अपनी अन्य पत्नियों की अपेक्षा बेपनाह मुहब्बत दी। पूना में उसके लिये एक अगल महल बनवाया। मस्तानी के लगातार सम्पर्क में रहने के कारण पेशवा मांस-मदिरा का भी सेवन करने लगे। पेशवा खुद ब्राह्मण थे और उनके दरबार में ज्यादातर सरदार यादव थे, क्योंकि शिवाजी की माँ जीजाबाई यदुवंशी थीं और उसी समय से मराठा दरबार में यदुवंशियों की मान्यता स्थापित थी। दोनों जातियों में मांस-मदिरा को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। एक दिन आक्रोश में पेशवा के भाई चिमनाजी अप्पा और पुत्र बालाजी ने मस्तानी को शनिवारा महल के एक कमरे में नजरबन्द कर दिया, जिसे छुड़ाने का असफल प्रयास बाजीराव द्वारा किया गया। मस्तानी की याद पेशवा को इतना परेशान करती कि वो पूना छोड़कर पारास में रहने लगे। मस्तानी के वियोग में पेशवा अधिक दिनों तक जीवित न रहे और 1740 में पेशवा मस्तानी की आह लिये चल बसे। पेशवा के मरने पर मस्तानी ने चिता में सती होकर अपने प्रेम का इज़हार किया। ढाउ-पाउल में मस्तानी का सती स्मारक है।

बाजीराव-मस्तानी से एक पुत्र शमशेर बहादुर हुए जिन्हें बांदा की रियासत मिली और इनकी सन्तति नवाब बांदा कहलाई। शमशेर बहादुर 1761 ई. में पानीपत के युद्ध में अहमद शाह अब्दाली के विरुद्ध मराठों की ओर से लड़ते हुए मारे गए। इनकी कब्र भरतपुर में आज भी विद्यमान है जो उस समय जाटों के अफलातून सूरजमल की रियासत थी। शमशेर बहादुर-2, जुल्फिकार अली बहादुर और अली बहादुर-2 इस वंश के प्रमुख नवाब हुए। शमशेर बहादुर-2 मराठा समाज में पले बढ़े थे। उन्होंने बांदा में एक रंगमहल बनवाया जो कंकर महल के नाम से जाना जाता है। उन्होंने दूर-दूर से क्लासिकी गायकी के उस्तादों को बुलाकर बांदा में आबाद किया। उस मुहल्ले का नाम कलावंतपुरा था जो आजकल कलामतपुरा हो गया है। बांदा की जामा मस्जिद जो दिल्ली की जामा मस्जिद की तर्ज पर बनी है का निर्माण जुल्फिकार अली बहादुर ने कराया। मिर्जा गालिब इसी नवाब को अपना रिश्तेदार बताते हैं। अपनी मुफलिसी के वक्त गालिब बांदा आये और नवाब ने सेठ अमीकरण मेहता से उन्हें 2,000 रु. कर्ज अपनी जमानत पर दिलवाया। इसी परम्परा में नवाब अली बहादुर-2 हुए जिन्होंने 1857 में अंग्रेजों से भयंकर युद्ध किया। रानी झाँसी अलीबहादुर को अपना भाई मानती थीं और उनके सन्देश पर अली बहादुर उनके साथ लड़ने कालपी गए। 1857 में अली बहादुर ने बांदा को स्वतंत्र घोषित कर दिया था।

1857 के गदर में बांदा पहली रियासत थी जिसने अपनी आज़ादी का ऐलान किया। कालान्तर में ह्विटलॉक ने यहाँ कब्ज़ा किया और भूरागढ़ के किले में लगभग 800 क्रान्तिकारियों को फाँसी दी गई। नवाब बांदा को इन्दौर निर्वासित कर दिया गया। इसके बाद बाजीराव-मस्तानी के वंशज इन्दौर में ही रहे।

जैतपुर राज्य उस समय स्वर्णिम युग में प्रवेश करता है जब यहाँ पर छत्रसाल के वंशज राजा पारीक्षत राज सिंहासन पर बैठते हैं। पारीक्षत अंग्रेजों की पराधीनता से बहुत दुखी थे। काशी नरेश की प्रेरणा पर उन्होंने 1836 ई. में ग्राम सूपा में एक ‘बुढ़वा मंगल’ का आयोजन किया और इसमें 53 रियासतों के राजाओं ने भाग लिया। पारीक्षत की प्रेरणा पर विद्रोह की अलख जगी। किन्तु चरखारी नरेश राव रतन सिंह की गद्दारी से उन्हें गिरफ्तार किया गया। और कानपुर में सवाई हाता सिंह में उनको और उनकी पत्नी रानी राजों को नजरबंद किया गया जहाँ 1853 र्इं. में अंग्रेजों ने पारीक्षत को विष दे दिया।

चरखारी नरेश राव रतन सिंह को देश भक्तों से गद्दारी के फलस्वरूप अंग्रेजों ने जैतपुर की जागीर उनके भाई खेतसिंह को दी। खेत सिंह नि:सन्तान मरे और मौका पाकर डलहौजी ने अपनी हड़प नीति के तहत 1849 ई. में जैतपुर को अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया। इस प्रकार 1849 ई. में बाजीराव-मस्तानी के प्रथम मिलन का यह गवाह अंग्रेजों के आधिपत्य में चला गया।

Wednesday 20 July 2016

5 saal baad lautee is taalaab kee raunak, beech mein viraajate hain bajarangabalee 5 years later returned to the charm of the pond, in the middle houses the bajrangbali


Bella became the main route between the city and the charm of rhythm has returned after five years. Because of the rain water is overflowing, now We got over-flow needs. Given the beauty of seeing the overflowing pond is made.
Belatal the middle famous Hanuman Mandir, Ram Setu and the Sai temple. Both are connected to the Ram Setu temple, located in the middle of the pond, but the pond remain dry due to the overall beauty of the temples did seem insipid. Due to low rainfall in the past was not able to fill Belatal which did not see here Sunderta.
The monsoon rains in a week to remain dry rhythm Bella was buzzing. Today the situation has reached the over-Flon Belatal much water is needed. Due to overflowing of the pond in the beauty of the temples is the aura. Bella greenery and flowers from the top of the pond to the people once again forced to draw.
Here on the banks of the pond The nursery has also seemed to be greener. Damayanti Belatal campus of the people became too has begun to arrive in the park. Twice the number of people is beginning to be seen. Belatal young  said here after a view of the water overflowing Wanki are worth. Besides, even religious, with a sensation of peace and happiness is derived. That's why people come here, walking and philosophy are like the rest.

Monday 18 May 2015

Distances Summary and More Information From Belatal Mahoba to Delhi..

Your Travel Starts at Belatal, Uttar Pradesh, India.
It Ends at New Delhi, Delhi, India
During your travel, your Plan to visit the following-
1) Mahoba, Uttar Pradesh, India
Can't get a feel of the tour distance on the small map? How far is Belatal from New Delhi? Would you like to see a larger Map? You want to check theMap from Belatal to New Delhi via Mahoba!
Apart from the trip distance, do you need road driving directions? Refer the Directions from Belatal to New Delhi via Mahoba!
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Travel time is an important point to know with the driving distance. Hence you might also want to know the Travel Time from Belatal to New Delhi via Mahoba. This will help you estimate how much time you will spend travelling for the distance from Belatal to New Delhi.
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Friday 13 June 2014

Coming Soon new post about the Belatal (Mahoba)

Hello My Friends, I am little busy with my work so i am not able to write my post but i promise that i will write all the updates about the Belatal (Jaitpur), Mahoba history, political summery, weather details, its new tourist attraction, Belatal Backend history in my free time.

As i have provide all the history about the Belatal Mahoba, on once i will update on this i will write my new post with all the details.

As we know that Belatal is not a small town, Belatal is having its own history and lots of villages are connected by Belatal (Jaitpur). We knows that is the Bundelkhand will separate state as discussion is going on so if it will be divided from U.P and will be separate then definitely the Belatal development will be higher then before and will be lots of Update. So my all friends please wait till my next post and i will post a new post with descriptive and informational details.